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माँ संतोषी कथा
संतोषी माता कथा (Maa Santoshi ) एक कहानी के बारे में बताती है कि कैसे संतोषी माता ने एक विवाहित महिला के जीवन को आशीर्वाद दिया जो बेहद दर्द में थी। कथा उपवास संतोषी माता व्रत का पालन करने की प्रक्रिया और व्रत उद्यापन कैसे करें के बारे में भी बात करती है।
कथा की शुरुआत “बोलो जय संतोषी माता” से करें
संतोषी माता (santoshi Mata ) के पिता गणेश, माता रिद्धि सिद्धि; धन-धान्य, सोना, चंडी, मोती, मूंगों रत्नों से भरा परिवार; गणपति पिता की दुलार भरी, गणपतिदेव की कमाई, धंधे बरकत, दरिद्रता दूर, कलह-कलेश का नशा, सुख-शांति प्रकाश, बालकों की फुलवारी, धंधे में मुनाफे की भारी कमाई, मन की कामना पुराण, शोक, विपत्ति, चिंता सब चूर्ण , संतोषी माता (santoshi Mata )की नाम, जैसे बन जाए सारे काम, बोलो जय संतोषी माता की।
माँ संतोषी (Maa Santoshi)कथा कैसे करें? (संतोषी माता कथा विधि)
इस व्रत को करने वाला कथा कहते सुनते सुनते समय हाथ में गुड़ और भुने हुए चन्ने रखे। सुन्नीवाले “माँ संतोषी (Maa Santoshi)की जय”, “माँ संतोषी की जय”, इस प्रकार जय-जयकार मुख से बोलते जाएं। कथा समाप्त हनी पर हाथ का गुड चन्ना गौ-माता (गाय देवी) खिलाएं। कलश में रखा हुआ गुड़ चना सबको प्रसाद के रूप में बंटें।
माँ संतोषी (Maa Santoshi)व्रत कथा
एक बुधिया थी और उसके सात बेटे थे| 7 बेटों में से 6 कामने वाले थे, एक निकम्मा था | बुधिया माँ छाँव पुत्रों को रसोई बना खिलाड़ी थी और पीछे जो कुछ बचाता था तो सातवीं को दे देती थी।
परन्तु वो बड़ा भोला-भला था, मन में कुछ विचार नहीं कर्ता था।
एक दिन वो अपनी बहू से बोला – “देखो! मेरी माता को मुझ पर कितना प्रेम है!”
वो बोली – “क्यों नहीं, सबक बच्चा तुमको खिलाड़ी है |”
वो बोला “भला ऐसा भी कहीं हो सकता है?
जब तक मैं आंखों से न देखूं, मान नहीं सकता।”
बहू ने हंसकर कहा- “देख लोगे तब तो मानोगे?”
कुछ दिन बड़ा तोहार आया, घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड्डू बने। वो जानने को सर दुखने का बहाना कर पतला वस्त्र सर पर ओहकार रसोई घर में गया और कपड़े में से सब देखता रहा। चाहों भाई भोजन करें आए, उसे देखा मां ने उनके लिए सुंदर-सुंदर आसन बिच्छे हैं, सात प्रकार की रसोई परोसी है। वो अग्राह करके जिमती है उन छे भाईयों को। वो देखता रहा। चाहों भाई भोजन करके उसे तब मां ने उनकी झूठी थालियों में से लड्डू के टुकड़े उठाये और लड्डू बनाया झूठन साफ कर बुधिया मां ने उसे पुकारा-
उठ बेटा! चाहों भाई भोजन कर गए, अब तू ही बाकी है उठ ना! कब खेगा? वो कहने लगा “मां! मुझे भोजन नहीं करना मैं परदेस जा रहा हूं।”
घर से निकल गया। चलते समय बहू की याद आई। वो गौशाला में करादे थाप रही थी, जाकार बोला –
दोहा –
हम जावें परदेस को आएंगे कुछ काल। तुम रहियो संतोष से, धरम अपना पल।
वो बोली –
“जाओ पिया आनंद से हमरो सोच हटाये। राम भरोसे हम रहें, ईश्वर तुम्हारे सहाय। दो निशानी आपनी देख धारूं मैं धीर, सुधी मत हमरी बिसारियो राखियो मन गंभीर”।
वो बोला
“मेरे पास तो कुछ नहीं, ये अंगूठी है तो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे”।
वो बोली, “मेरे पास क्या है? ये गोबर भरा हाथ है।” ये कह उसकी पीठ में गोबर के हाथ की छाप मार दी। वो चल दिया।
चलते-चलते दूर देश में पंहुचा वहां एक साहूकार की दुकान थी |
वहां जाकर कहने लगा- “भाई मुझे नौकरी रख लो। व्यापारी की जरूरत थी, बोला” रह जा।
कहा “काम देखकर दाम मिलेंगे|
” साहूकार की नौकरी मिली। वो सवेरे के 7 बजे से 2 बजे तक नौकरी बजने लगी। के 7/8 नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगेंगे। ये तो बहुत होशियार बन गया। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बनाया लिया। बरह वर्ष में नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार छोड़ दिया। बहार चला गया।
अब बहू पर क्या बीती, सुनो! सास ससुर उसे बहुत दुख देने लगेंगे। सारी गृहस्ती का सारा काम करके उसे लकड़ी लेने जंगल भजेते थी। और फूटे नारियल की नारली में पानी आर दिन गुजारते रहे।
एक दिन वो लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत है स्त्री संतोषी माता का व्रत कर रही थी। वहां वो खरी हो गई, कथा सुनने लगी,
फिर पूछने लगी – “बहनों, ये तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसे करने से क्या फल मिलता है? क्या व्रत के करने की क्या विधि है? यादी तुम इस व्रत का विधान मुझे समझौता कहोगी तो मैं तुम्हारा उपकार मानूंगी|”
तब उन में से एक स्त्री बोली-
“सुनो, ये माँ संतोषी का व्रत है, इसे निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है।
लक्ष्मी आती है। मन की चिंता का भर दूर होता है। घर में सुख होने से मन को प्रसन्न और शांति मिलती है। निपुत्री को पुत्र मिले। स्वामी बहार गया हो तो शिघरा आवे। कुंवारी कन्याओं को मन चाहा वर मिले।
राजद्वार में बहुत दिनों से मुकाबला चलता हो तो निपत जावे, कलह-कलेश की निवृत्ति हो, सुख शांति आवे, घर में धन जमा। हो, पैसा-जैदाद का लाभ हो, रोग दूर हो जावे तथा और भी जो कुछ भी मन में कामना होवे सब इस माँ संतोषी की कृपा से पूरी हो जाए, इस में संदेश नहीं है”।
वो पूछने लगी- “ये व्रत कैसे किया जाए, ये भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी”।
वो स्त्री कहने लगी- “सवा आने का गुर-चन्ना लेना। इच्छा हो तो सावा पांच आने का लेना या सवा रुपिये का भी सहुलियत के अनुसार लेना, बिना परेशानी श्रद्धा और प्रेम से जितना बन सके, सवाया लेना। सवा पैसे से सावा पांच आने तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति अनुपात लेना।
प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रह कथा कहना सुन्ना। इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगतार नियम पालन करना। सुन्नीवाला कोई ना मिली तो घी का दीपक जला उसके आगे या जल के पत्र को सामने रख कथा कहना परंतु नियम न टूटे, जब तक कात्या सिद्ध ना हो नियम पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उदयन करना।
तीन मास में माता फल पूरी करती है—इसमें याद किसी के ग्रह खोते हैं, तो भी माँ संतोषी (Maa Santoshi) वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्ध करती है। फल सिद्ध होने पर ही उदयापन करना चाहिए, बीच में नहीं।
उदयापन में आधायी सेर आटा का खाजा तथा इसी परिमान से खीर तथा चन्ने का साग करना। आठ लड़कों को इस में भोजन करना है। जहां तक मिले देवर, जेठ, भाई-बंधु, कुटुंब के लड़कों को लेना, न मिले तो रिश्ते और परवरिश के लड़कों को बुलाना। उन्हें भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा दायक माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में खटाई कोई न खावे। ये सुन बुधिया के लड़कों की बहू चल दी।
रास्ते में लकडी के बोझ को बेच दिया और उन पैसे से गुर-चन्ना ले माँ संतोषी (Maa Santoshi)के व्रत की तयारी की, आगे चली और मंदिर देख पूछने लगी- “ये मंदिर किसका है?”
सब कहने लगे- “माँ संतोषी (Maa Santoshi)का मंदिर है”।
ये सूर्य माता के मंदिर में जा माता के चरणों में लगीं। दीन हो विनती करने लगी — “मां, मैं निपत अग्यानी हूं। व्रत के नियम कुछ नहीं। बहुत दुखी हूं। हे माता! जगजनिनी, मेरा दुख दूर कर, मैं तेरी शरण में हूं।”
माँ संतोषी (Maa Santoshi) को दया आई-एक शुक्रवार बीता के दूसरे शुक्रवार कोही उसके पति का पत्र आया और तीसरी को उसका भेजा हुआ पैसा आ पाहुंचा।
ये देख जेठ-जेठानी चाँद सिकुर्नी लागे, इतने दिनों में इतना पैसा आया, इसमें क्या बात है?
लड़की तानें देने लगेंगे—रूपिया आने लगा— अब तो काकी की खातिर बढेगी-भैय्या! पत्र आवे रुपिया आवे तो हम सबके लिए अच्छा है।
ऐसा कहकर आंखों में आंसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोनी लगी- “मां! मैंने तुमसे पैसा कब मांगा है? मुझे पैसे से क्या काम है?
मुझे तो अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूं”। तब माँ संतोषी (Maa Santoshi) ने प्रसन्न होकर कहा, “जा, बेटी! तेरा स्वामी आएगा”। ये सुन खुशी से घर में जाकर काम करने लगी।
अबमाँ संतोषी (Maa Santoshi) विचार करने लगी—“इस भोली पुत्री से मैंने कहा तो दिया। के पास जा स्वप्न में प्रकट हो कहने लगी “साहूकार के बेटे! तो रहा है या जगता है?”
वो कहता है- “माता! सोता भी नहीं हूं, और जगत भी नहीं हूं। कहो क्या आज्ञा है?
“माँ कहने लगी- “तेरा घर-बार कुछ है या नहीं?”
वो बोला- “मेरा सब कुछ है माता! माँ-बाप, बहू है, क्या कमी है?”
माँ बोली- “भोले पुत्र! तेरी पत्नी घोर काश्त उठा रही है, तेरी माँ-बाप उसे बहुत तरास दे रहे हैं। तू उसकी सुधि ले”
वो बोले- “हां, माताजी! ये तो मुझे मालूम है परंतु जाऊं कैसे? परदेस की बात, लेने-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता।”
मां कहने लगी- “मेरी बात मान सवेरे नहा-धो कर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दंडवत कर दुकान पर जा बैथ! देखते-देखते, तेरा लीन-देन चुक जाएगा। जमा माल बिक जाएगा। सांझ होते- होते धन का देर लग जाएगा।
“अब तो वो सवेरे बहुत जल्दी उठ भाई-बंधुओं से अपने सपनों की बात कहते हैं। वो सब कहने लगेंगे कहीं सपने भी सच होते हैं?
एक बुढा बोला- “मेरी बात मान, इस तरह साँच झूठ करने के बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा करने में क्या है?
अब बुध की बात मान, नहा धोकर माँ संतोषी को दंडवत कर, घी का दीपक जला, दुकान पर जा बैठा है। थोड़ा देर में क्या देखता है कि देनेवाले रुपये लेने लगेंगे, लेनेवाले वसूल लेने लगेंगे। प्रसन्ना हो घर ले जाने के वास्ते गहना, कपडा, सामना ख़रीदने लगा। यहां के काम से निपत तुरंत घर को रावण हुआ।
वहां बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त माताजी के मंदिर पर विश्राम करती है।
दूर धूल उड़ती देख वो माताजी से पूछती है —
हे माँ संतोषी (Maa Santoshi)! ये धूल कैसी उद राही है?
“मां कहती है-“हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है अब तू ऐसा कर लकियों के बोझ बना एक नदी किनारे रख दूसरा मेरे मंदिर में और तीसरा अपने सर पर। तेरे पति को लकडी का गट्टा देख कर मोह पड़ा होगा- वो यहां रुकेगा, नशा पानी बना खाकर मां से मिलने जाएगा, तब तू लकडिय़ों का बोझ उत्तकर जाना और बीच चौक में गट्टा डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना- “लो, सासुजी! लकियों का गट्टा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो! आज कौन मेहमान आया है?
मां की बात सुन, बहू “बहुत अच्छा, माताजी” कहकर प्रसन्न मन हो लकियों के तीन गट्टे ले आई। एक नदी तट पर, एक माताजी के मंदिर रखा इतने में एक मुसाफिर आ पाहुंचा। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि अब यहां निवास करें और भोजन बनाएं, विश्राम ले वो गांव को गया।
सबसे प्रेम से मिला। उसी समय बहू सर पर लकड़ी का गट्टा लिए आती है।
लकड़ी का भारी बोझ आंगन में दाल जोर से आवाज देती है—” लो, सासूजी! लकड़ी का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो। आज कौन आया है?”
ये सुन उसकी सास अपने दिए गए कश्तों को भुलाने हेतू कहती है—“बहु! ऐसा क्यों कहती हो? तेरा मालिक आया है।
और अंगूठी देख व्याकुल हो जाता है। मां से पूछता है- “मां, ये कौन है?”
मां कहती है, “बेटा, ये तेरी बहू है। आज 12 साल हो गए, तू जब से गया है तब से सारे गांव में जानवार की तरह भटकती फिरती है।
काम घर का कुछ करती नहीं, चार समय आकार खा जाती है।” तुझे देखा भूसी की रोटी और नारियल के खोपड़े में पानी मांगती है।
वो लज्जित हो बोला— “ठीक है माँ! मैं ने यूज़ भी देखा है और तुम्हें भी देखा है।
अब मुझे दूसरे घर की ताली दो तो उसमे रहूँ”। तब मां बोली “ठीक है बेटा! तेरी जैसी मर्जी हो कर”।
ये कह ताली का गुच्चा पता दिया। राजा के महल में प्रतिदिन वाहन की तरह चहलकदमी होती है।
अब क्या? व्यंजन बनाना शुरू कर देंगे। जेठ के पुत्रों को गायें खिलाई गईं।
उसे मंजूर किया, परंतु पीछे जेठानी अपने बच्चों को सिखाती है- “देखो!
लड़के जीने आए, खीर भर पेट खाई।
परंतु बात याद आते ही कहने लगे- “हमें कुछ खाते दो, खीर खाना हमें मिलता है नहीं। देखकर अच्छी होती है”।
बहू कहने लगी- “खतरे किसी को नहीं दी जाएगी। ये तो संतोषी माता का प्रसाद है। ” इमली ला खाने लगे। ये देख बहू पर माताजी ने कोप किया।
राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए।
जेठ जेठानी मनमाने खोते वचन कहने लगेंगे- “सदा लूट-लूट कर धन इक्कत्था कर लाया, राजा के दूत पकड़कर ले गए। अब सब मालूम पर जाएगा, जब जेल की मार खाएगा”। बहू से ये वचन नहीं सुने गए।
रोटी-रोटी माताजी के मंदिर को गई। कहने लगी- “माताजी! तुमने ये क्या किया?
हंसकर अब क्यों रुलाने लगी?” , ना कुछ अपराध किया है। मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया। मैंने भूल से ही उन पैसे दे दिए- मुझे क्षमा करो मां!
“मा बोली- “ऐसी भी भूल होती है?” वो बोली- “मां मुझे माफ करदो मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी”।
मां बोली- “अब भूल ना करना”।
तेरा मालिक तुझे रास्ते में ही आटा मिलेगा। वो निकली राह में पति आता मिला। वो पूछती है – “तुम गए कहाँ वे?”
तब वो कहने लगा = “इतना धन जो कामया है उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वो भरने गया था”।
वो प्रसन्ना हो बोली- “भला हुआ, अब घर को चलो”। घर को गए, कुछ ही दिनों बाद फिर शुक्रवार आया,
वो बोली- “मुझे फिर माताजी का उद्यापन करना है।
” पति ने कहा “कारो”। वो फिर जेठ के लड़कों को भोजन को कहने गई।
जेठानी ने एक दो बात सुनायी और सभी लड़कों को सीखने लगी- “तुम सब लोग पहले ही कट्टाई मांगना”।
लड़की कहने लगे- “हमें खीर खाना नहीं भाता, जी बिगरता है, कुछ खट्टा खाने को दो”।
वो बोली- “खट्टाई खाने को नहीं मिलेगी, खाना हो तो खाओ”।
वो ब्राह्मणों के लड़कों को भोजन करने लगी। यथा-शक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उनको दिया।
इस्में संतोषी माता प्रसन्न हुई। माता की कृपा होते ही नवीन मास उसको चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ।
पुत्र को लेकर प्रतिदिन माता के मंदिर को जाने लगी।
मां ने सोचा- “ये रोज आती है, आज मैं क्यों ना इसके घर चलूं इसका आसरा देखूं तो सही।” ये विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया।
गुड़ चन्नी से सना मुख ऊपर से जल्द ही महत्वपूर्ण समान हैं, उसपर मखियां भी-भीना रही हैं।
देहली पर पांव रखते ही उसकी सास चिल्लै- “देखो रे! कोई चुराईं चली आ रही है। लड़को इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जाएगी”।
लड़के डरने लगेंगे और चिल्लाकर खिडकियां बंद करने लगेंगे।
बहू एक रोशनदान में से देख रही थी।
प्रसन्नता से पगली हो चिल्लाने लगी – “आज मेरी माताजी मेरे घर आई है”।
ये कह बच्चे को दूध पीने से हटाती है।
इतने में तो सास का क्रोध फूट परा।
बोली- “रंद! देखकर क्यों उतावली हुई है? बच्चे को पता दिया। इतने में मां के प्रताप से जहां देखो वहां लड़के ही लड़के नजर आने लगे।”इतना कहकर झटके सारे घर की किवर खोल देती है।सबने माँ संतोषी (Ma Santoshi) के चरण पकड़ लिए और विनती करने लगे-“हे माता! हम मूरख हैं, पापी हैं,
तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बहुत अपराध किया है। हे जगतमाता! हमारा अपराध क्षमा करो”।
क्या प्रकार माँ संतोषी (Maa Santoshi)प्रसन्न हुई है। बहू को जैसा फल दिया वैसा माँ संतोषी (Ma Santoshi) सब को दे।
जो पढ़े उसके मनोरथ पूर्णा हों।
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