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सत्यनारायण की प्रसिद् व्रतकथा (satyanarayan katha)
SatyaNarayan katha भगवान विष्णु के सत्य स्वरूप में पूजना ही (सत्य नारायण) की पूजा है।
संसार में एकमात्र नारायण ही सत्य है, बाकी सब माया है, सत्य में ही सारा जगत समाया हुआ है, सत्य के कारण ही शेष देवगण पृथ्वी को धारण करते हैं।
भगवान की पूजा कई रूपों में की जाती है, उनमें से भगवान का Satya Narayan Katha(सत्यनारायण )स्वरूप इस कथा में बताया गया है।
श्लोक संस्कृत भाषा में उपलब्ध है मूल पाठ में 170 श्लोक उपलब्ध है जो पांच अध्यायों में बंटे हुए हैं इस कथा में दो प्रमुख विषय है – जिनमें एक है संकल्प को भूलना और दूसरा प्रसाद का अपमान करना।
SatyaNarayan katha श्री सत्यनारायण व्रतकथा :-
SatyaNarayan katha (श्री सत्यनारायण) व्रत का वर्णन देवर्षि नारद जी के पूछने पर स्वयं
भगवान विष्णु ने अपने मुख से किया है।
प्रथम अध्याय :- SatyaNarayan katha
एक बार योगी नारद जी ने भ्रमण करते हुए मृत्युलोक के प्राणियों को अपने अपने कर्मों के अनुसार तरह -तरह के दुखों से परेशान होते देखा।
इससे उनका संतह्रदय द्रवित हो उठा और वे वीणा बजाते हुए अपने परम आराध्य भगवान श्रीहरि की शरण में हरि कीर्तन करते क्षीरसागर पंहुच गये
और स्तुति पूर्वक बोले|
हे नाथ ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो मृत्युलोक के प्राणियों की व्यथा हरने वाला कोई छोटा सा उपाय बताने की कृपा करें।
तब भगवान ने कहा, हे वत्स! तुमने विश्व कल्याण की भावना से बहुत सुंदर प्रसन्न किया है।
मैं तुम्हें ऐसा व्रत बताता हूं जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है और महान पुणयदायक है तथा मोह के बंधन को काट देने वाला है|
और वह है श्री सत्यनारायण व्रत इसे विधि विधान से करने पर मनुष्य सांसारिक सुखों को भोगकर मोक्ष का भागी होता है।
भगवान विष्णु जी ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेश मुक्त, सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है,
वह है सत्यनारायण व्रत कथा।SatyaNarayan katha(सत्यनारायण )व्रत दुःख शोक का आदि का शमन करने वाला है|
धन धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और सन्तान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है।
जिस किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बंधुबांधवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सांयकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे।
नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए।
केले के फल, घी,दूध, गेंहू का चूर्ण अथवा गेहूं के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ आदि सभी सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।
दूसरा अध्याय:- SatyaNarayan katha
प्रथम कथा:-SatyaNarayan katha
काशीपुर नगर के एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षावृत्ति करते देख भगवान विष्णु स्वयं ही एक बूढ़े ब्राह्मण के रूप में उस निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर कहते हैं,
हे विप्र! SatyaNarayan katha (श्री सत्यनारायण भगवान) मनोवांछित फल देने वाले हैं
तुम उनके व्रत पूजन करो जिसे करने से मनुष्य सब प्रकार के दुखों से मुक्त हो जाता है।
इस व्रत में उपवास का भी अपना महत्व है किंतु उपवास से मात्र भोजन लेना ही नहीं समझना चाहिए।
उपवास के समय ह्रदय में यह धारणा होनी चाहिए कि आज श्री सत्यनारायण भगवान हमारे पास ही विराजमान हैं
अतः अंदर व बाहर शुचिता बनाए रखनी चाहिए और श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक भगवान का पूजन कर उनकी मंगलमयी कथा का श्रवण करना चाहिए
सांयकाल में यह पूजन अधिक प्रशस्त माना गया है।
द्वितीय satyanarayan katha:-
श्री सूतजी बोले – हे द्विजो! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिस किसी ने भी इस SatyaNarayan (सत्यनारायण )व्रत को किया था,
उसे भली भांति विस्तारपूर्वक कहूंगा।
रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन रहता था भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था।
प्रिय भगवान ने उसके दुःख को देखकर वृद्ध का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा – तुम प्रतिदिन अत्यंत दुःखी होकर किसलिए पृथ्वी पर भ्रमण करते रहते हो?
हे द्विज श्रेष्ठ यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।
वह निर्धन बोला – मैं अत्यंत दरिद्र हूं और भीक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूं।
यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हो तो कृपापूर्वक बतालाइये।
वृद्ध बोला – हे विप्र! SatyaNarayan katha( सत्यनारायण) भगवान विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं
तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाते हैं।
अगले दिन प्रातः काल उठकर SatayNarayan katha (सत्यनारायण) का व्रत करूंगा ऐसा संकल्प करके वह भिक्षा के लिए चल पड़ा।
उस दिन भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ उसी धन से उसने बन्धु बांधवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया।
इस व्रत के प्रभाव से वह सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सुख और समृद्धि से सम्पन्न हो गया।
इस प्रकार वह भगवान सत्यनारायण का व्रत करके वह सभी दुखों से मुक्त हो गया।
SatyaNarayan katha(सत्यनारायण) की यह व्रत कथा सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली है
उसी के प्रभाव से मुझे धन धान्य समृद्धि प्राप्त हुआ है।
तीसरा अध्याय SatyaNarayan katha:-
श्री सूतजी बोले – श्रेष्ठ मुनियों मैं आगे पुनः एक कथा कहूंगा आप लोग सुनें।
प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था।
वह जितेन्द्रीय , सत्यवादी तथा अत्यंत बुद्धिमान था वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और धन देकर संतुष्ट करता था।
कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायण थी
राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर SatyaNarayan (श्री सत्यनारायण )का व्रत कर रहा था
उसी समय व्यापार के अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहां आया
भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया।
और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनय पूर्वक पूछने लगा।
साधु ने कहा – राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया इसे विस्तार पूर्वक बताइए।
राजा बोले – हे साधो ! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु बांधवों के साथ मैं अतुल तेज संपन्न भगवान विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूं।
राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा – राजन्! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइए,
आपके कथानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूंगा मुझे भी संतति नहीं है। इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी।
ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्द पूर्वक अपने घर आया
उसने अपनी भार्या से संतति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया
तथा जब कभी मुझे संतति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।
एक दिन लीलावती नाम की सती साध्वी पत्नी गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्या रत्न की उत्पत्ति हुई
और वह शुक्लपक्ष के चंद्रमा की भांति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी उस कन्या का कलावती नाम रखा गया ।
इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा – आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत क्यों नहीं कर रहे?
साधु बोला – प्रिये ! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।
इस प्रकार अपनी पत्नी को भली भांति आश्वस्त कर वह वह व्यापार करने के लिए वह नगर की ओर चला गया।
तदन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करते हुई
अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मनत्रणा करके कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो – ऐसा दूत को समझाकर भेज दिया गया।
उसकी आज्ञा पाकर दूत कांचन नामक नगर में गया वहां से वणिक का पुत्र ले आया।
साधु ने उसे सर्व गुणों से उत्तम पाकर विधिवत अपनी कन्या का दान कर दिया।
उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश (satyanarayan katha) भगवान का वह उत्तम व्रत भूल गया।
जिसके कारण भगवान उसपर रुषट हो गये।
कुछ समय पश्चात दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया
और अपने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगे। जब वे दोनों व्यापार के सिलसिले में राजा चंद्र केतु के रमणीय नगर में गये ।
उसी समय भगवान श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रति देखकर इसे दारूण, कठिन और महान दुःख प्राप्त होगा यह शाप दे दिया।
श्राप के कारण वाणिक पुत्रों को राजा के दूत चोरी के आरोप में उठा ले गए।
जिसके कारण उसकी भार्या अत्यंत दुःखी हुई और अन्न जल त्याग कर दर दर भटकने लगी ।
एक दिन भूख प्यास से पीड़ित होकर वह कलावती के वन के घर गई ।
वहां उसने सत्यनारायण व्रत कथा सुनी और वरदान मांगा उसके बाद वह भी (satyanarayan katha) सत्यनारायण व्रत करने को उद्यत हुई
और प्रसन्न मन से साध्वी ने भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया
और वरदान स्वरूप दोनों वाणिकपुत्रों की मुक्ति की मांग की ।
व्रत के कारण राजा ने वाणिकपुत्रों को स्वतंत्र कर वस्त्र , अलंकार देकर घर विदा किया।
उन दोनों ने राजा को प्रणाम किया और घर के लिए प्रस्थान किया।
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