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(Shani Dev ki katha) भगवान शनि देव की कथा
भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha)
भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha ) साक्षात रुद्र हैं।
उसका शरीर परिक्रमण इन्द्रनील मणि के समान है।
शनि देव के सिर पर स्वर्ण मुकुट, गले में माला और शरीर पर नीले रंग के वस्त्र है। भगवान शनि देव गिद्ध पर सवार रहते हैं।
वे हाथों में क्रमश: धनुष, बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण करते हैं।
वह भगवान सूर्य और छाया (सवर्ण) के पुत्र हैं।
इन्हें क्रूर ग्रह माना जाता है। उनकी दृष्टि में क्रूरता का मुख्य कारण उनकी पत्नी का श्राप है।
हर व्यक्ति के जीवन में भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha )की अहम भूमिका होती है,
अगर कुंडली में भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha )सबसे अच्छी स्थिति में हो तो यह व्यक्ति को बहुत ही कम समय में बड़ी सफलता देता है।
इसलिए हर संभव प्रयास करके भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha ) को प्रसन्न करना चाहिए।
भगवान शनि देव कथा (Bhagwan Shani Dev ki katha)
एक बार नव ग्रहो में बहस हो गई , की नव ग्रहो में सबसे उत्तम कौन है।
इस बात के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंच गए। उन्होंने कहा, ‘हे देवराज!
अब आप ही निर्णय करें कि हम सब में से बड़ा कौन है।
देवताओें द्वारा पूछें गए सवाल से देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए। इंद्र देव ने कहा कि मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता।
मैं असमर्थ हूं। इस सवाल का जवाब पाने के लिए वो सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी के राजा विक्रमादित्य के पास गए।
राजा विक्रमादित्य के महल पहुंचकर सभी देवताओं ने प्रश्न किया। इस पर राजा विक्रमादित्य भी असमंजस में पड़ गए।
वो सोच रहे थे कि सभी के पास अपनी-अपनी शक्तियां हैं ,जिसके चलते वो महान हैं।
अगर किसी को छोटा या बड़ा कहा गया तो उन्हें क्रोध के कारण काफी हानि हो सकती है।
इसी बीच राजा को एक तरीका सूझा।
उन्होंने 9 तरह की धातु बनवाई जिसमें स्वर्ण, रजत (चाँदी), कांसा, ताम्र (तांबा), सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे शामिल थे।
राज ने सभी धातुओं को एक-एक आसन के पीछे रख दिया।
इसके बाद उन्होंने सभी देवताओें को सिंहासन पर बैठने के लिए कहा।
धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा।
भगवान शनि देव की कथा
जब सभी देवताओं ने अपना-अपना आसन ग्रहण कर लिया तब राजा विक्रमादित्य ने कहा- ‘इस बात का निर्णय हो चुका है।
जो सबसे पहले सिंहासन पर बैठा है वही बड़ा है।
‘ यह देखकर शनि देवता बहुत नाराज हुए उन्होंने कहा, ‘राजा विक्रमादित्य! यह मेरा अपमान है।
तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाया है।
मैं तुम्हारा विनाश कर दूंगा।
तुम मेरी शक्तियों को नहीं जानते हो।
‘शनि ने कहा- ‘एक राशि पर सूर्य एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं।
लेकिन मैं किसी भी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं।
मैंने अपने प्रकोप से बड़े-बड़े देवताओं को पीड़ित किया है।
मेरे ही प्रकोप के कारण श्री राम को वन में जाकर रहना पड़ा था क्योंकि उन पर साढ़े साती थी।
रावण की मृत्यु भी इसी कारण हुई। अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच पाएगा। शनिदेव ने बेहद क्रोध में वहां से विदा ली।
वहीं, बाकी के देवता खुशी-खुशी वहां से चले गए।
इसके बाद सब कुछ सामान्य ही चलता रहा।
राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे।
दिन ऐसे ही बीतते रहे लेकिन शनि देव अपना अपमान नहीं भूले।
एक दिन राजा की परीक्षा लेने शनिदेव घोड़े के व्यापारी के रूप में राज्य पहुंचे।
जब राजा विक्रमादित्य को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा।
अश्वपाल लौट आया और राजा को बताया कि धोड़े बेहद ही कीमती हैं।
राजा ने खुद जाकर एक सुंदर और शक्तिशाली घोड़ा पसंद किया
और उसकी चाल देखने के लिए घोड़े पर सवार हो गए।
जैसे ही राजा विक्रमादित्य घोड़े पर बैठे वैसे ही घोड़ा बिजली की रफ्तार से दौड़ पड़ा।
भगवान शनि देव की कथा
घोड़ा राजा को एक जंगल ले गया और वहां जाकर राजा को नीचे गिरा दिया
और फिर कहीं गायब हो गया। राज्य का रास्ता ढूंढने के लिए राजा जंगल में भटकने लगा।
लेकिन उसे कोई रास्ता नहीं मिला।
कुछ समय बाद उसे एक चरवाहा मिला।
भूख-प्यास से परेशान उस राजा ने चरवाहे से पानी मांगा।
चरवाहे ने उसे पानी दिया और राजा ने उसे अपनी एक अंगूठी दे दी।
रास्ता पूछकर राजा जंगल से निकल गया और पास में ही मौजूद एक नगर में पहुंच गया।
एक सेठ की दुकान पर राजा ने कुछ आराम के लिए रुका।
वहां, सेठ से बातचीत करते हुए उसने बताया कि वो उज्जयिनी नगरी से आया है।
राजा कुछ देर तक उस दुकान पर बैठा। जितनी देर वो वहां बैठा सेठ जी की काफी बिक्री हो गई।
सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा। सेठ ने राजा को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया।
भगवान शनि देव की कथा
सेठ के घर में एक खूंटी पर सोने का हार लटका था।
उसी कमरे में वो राजा को छोड़कर बाहर चला गया।
कुछ समय बाद खूंटी उस सोने के हार को निगल गई।
सेठ ने विक्रमादित्य से वापस आकर पूछा की उसका हार कहां है।
तब राजा ने उसे हार गायब होने की बात बताई।
सेठ ने क्रोधित होकर विक्रमादित्य के हाथ-पैर कटवाने के आदेश दे दिए।
राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया।
फिर कुछ समय बाद विक्रमादित्य को एक तेली अपने साथ ले गया।
तेली ने उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया। वह पूरा दिन बैलों को आवाज देकर हांकता था।
विक्रमादित्य का जीवन इसी तरह यापन होता रहा। उस पर शनि की साढ़े साती थी
जिसके खत्म होने पर वर्षा ऋतु शुरू हुई।एक दिन राजा मेघ मल्हार गा रहा था।
उसी समय उस नगर के राजा की बेटी राजकुमारी मोहिनी ने उसकी आवाज सुनी।
उसे आवाज बेहद पसंद आई।
भगवान शनि देव की कथा
मोहिनी ने अपनी दासी को भेजकर गाने वाले को बुलाने को कहा।
जब दासी लौटी तो उसने अपंग राजा के बारे में मोहिनी को सब बताया।
लेकिन राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर मोहित हो चुकी थी।
अपंग होने के बाद भी वह राजा से विवाह करने के लिए मान गई।
जब मोहिनी के माता-पिता को इसका पता चला तो वो हैरान रह गए।
रानी ने अपनी बेटी को समझाते हुए कहा कि तेरे भाग्य में किसी राजा की रानी का सुख है।
तू इस अपंग से क्यों विवाह करना चाहती है।
लेकिन समझाने के वाबजूद भी राजकुमारी अड़ी रहीं।
जिद्द को पूरा कराने के लिए राजकुमारी ने भोजन छोड़ दिया।
अपनी बेटी की खुशी के लिए राजा-रानी अपंग विक्रमादित्य से मोहिनी का विवाह करने के लिए तैयार हो गए।
दोनों का विवाह हुआ और वो तेली के घर रहने लगे।
उसी दिन विक्रमादित्य के सपने में भगवान शनिदेव (Bhagwan Shani Dev ki katha ) आए।
उन्होंने कहा कि देखा तूने मेरा प्रकोप ,राजा ने भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha ) से उसे क्षमा करने को कहा।
उन्होंने कहा कि जितना दुःख आपने मुझे दिया है, उतना किसी और को मत देना।
इस पर भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha ) ने कहा, ‘राजा! मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ।
जो कोई व्यक्ति मुझे पूजेगा, व्रत करेगा और मेरी कथा सुनेगा
उस पर मेरी कृपा-दृष्टि बनी रहेगी।
सुबह जब राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो उसने देखा की उसके हाथ-पांव वापस आ गए हैं।
भगवान शनि देव की कथा
उन्होंने मन ही मन में भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha )को नमन किया।
राजकुमारी भी विक्रमादित्य के हाथ-पैर देखकर हैरान रह गई।
तब राजा ने भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha)के प्रकोप की कथा सुनाई।
जब सेठ को यह बात पता चली तो वो तेली के घर पहुंचा। उसने राजा विक्रमादित्य से उनके पैरों में गिरकर माफी मांगी।
राजा ने सेठ को माफ कर दिया। सेठ ने राजा से उसके घर जाकर भोजन करने के लिए कहा।
भोजन करते हुए अचानक से ही खूँटी ने हार उगल दिया।
सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया।
उन्होंने उसे स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा के साथ विदा कर दिया।
भगवान शनि देव की कथा
राजा विक्रमादित्य अपनी दोनों पत्नियों यानी राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ अपने राज्य उज्जयिनी पहुंचे।
सभी ने उनका स्वागत किया।
इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करते हुए कहा कि आज से भगवान शनि देव(Bhagwan Shani Dev ki katha) सब देवों में सर्वश्रेष्ठ माने जाएंगे।
साथ ही भगवान शनि देव का व्रत करें और व्रतकथा जरूर सुनें।
यह देखकर भगवान शनि देवबहुत खुश हुए। व्रत करने और व्रत कथा सुनने से भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha ) की कृपा रहने लगी
और लोग आनंदपूर्वक रहने लगा।
भगवान शनिदेव (Bhagwan Shani Dev ki katha) के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधि देवता यम हैं।
इसका वर्ण कृष्ण, वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे का बना है। शनिदेव एक राशि में 30-30 महीने रहते हैं।
वे मकर और कुंभ राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 19 वर्ष की होती है।
भगवान शनि देव (Bhagwan Shani Dev ki katha )की शांति के लिए मृत्युंजय जप, नीलम धारण करना और ब्राह्मण को तिल, भैंस, लोहा, तेल, काला वस्त्र, नीलम, काली गाय, जूता, कस्तूरी और सोना दान करना।
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